May
25
दस महाविद्या
दस महाविद्या
यह दस महाविद्या देवी कौन है और उनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? दस महाविद्याओं का बहुत बड़ा महत्व है सृष्टि के कल्याण के लिए इन् दस महाविद्याओं का पूजन पाठ किया जाता है | यह दस महादेवी सृष्टि की रक्षा करती है सञ्चालन करती है और समस्त उपद्रहों से संसार की रक्षा करती है | प्राचीन काल में एक बार भगवान् शिव एव माता सती के साथ कैलाश में बैठे हुए थे उसी समय माता सती को समाचार प्राप्त हुआ कि हमारे पिता एक बहुत बड़ा यज्ञ अनुष्ठान का आयोजन कर रहे है सती को यह मालुम हुआ की उसमे सभी देवी देवताओं को निमंत्रण दिया गया है परन्तु हमारे पति को नहीं बुलाया गया है इससे यह भगवान् शिव से कहने लगी हे प्रभु में अपने पिता के घर जाना चाहती हूँ तो भगवान् ने कहा हे देवी बिना बुलाये नहीं जाना चाहिए क्योंकि आपके पिता ने बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया है परन्तु उसमे मुझे निमंत्रित नहीं किया है उसी पर माता सती ने कहा हे प्रभु में अपने घर जाउंगी मैं अपने पिता से पूछूंगी कि आपने मेरे पति को क्यों आमंत्रित नहीं किया यज्ञ में भाग क्यों नहीं दिया यदि यज्ञ में भाग देने को तैयार हो जाएंगे तो ठीक है नहीं तो मैं यज्ञ को बिधवंश कर दूंगी भगवान् शिव ने पुनः मन किया तो देवी सती क्रोधित हो गयी और आसान से कड़ी हो गयी और क्रोध में तम तमाते हुए कहने लगी हे प्रभु मुझे मत रोकिए मैं तो जाऊंगी जब देवी सती ने क्रोध किया तो उनका शरीर जो है की काले रंग का हो गया और उनके शरीर से कालिका देवी की उत्पत्ति हुई इस प्रकार उनके शरीर से दस देवियाँ प्रकट हुई भगवान शिव उनका भयानक रूप देखकर वह से चल दिए और जिस जिस दिशा में जा रहे थे उस उस दिशा में एक एक देवी दिखायी दे रही थी भगवान शिव ने सती से पूछा कि हे देवी यह कौन है ? तो सती ने कहा हे प्रभु जो सामने दखाई दे रही है यह कालिका देवी है जो ऊपर के और दिखाई दे रही है नीले रंग की वह तारा देवी है अग्नि कोण में जो देवी है वह धूमावति है इस तरह उन्होंने दस महाविद्या देवियो के बारे में बतलाया वह दस महाविद्या देवी कौन है वह इस प्रकार है कहा गया है भगवती सती के शरीर से दस महाविद्या उत्पन्न हुई उन् दस महाविद्याओं का नाम है- काली, तारा, त्रिपुर्ण सुंदरी, भुबनेस्वरी, त्रिपुण भैरवी, धूमावती, छिन्नमस्तिका, भगलामुखी, माँ तंगी, और कमला इसमें चार जो है की काली खुल में साधनाये होती है और छह जो है की श्री कुल में साधनाये होती है इन् दस विद्याओं के दो कोटि है चार कोटि जो है की काली के और छह कोटि श्री कुल के होते है कुछ साधक जो है की काली को इष्ट देवी मानकर साधना करते है और और कुछ साधक जो है की श्री को इष्ट देवी बनकर साधना करते है उससे देवी भगवती प्रसन्न हो करके साधक को अभय प्रदान करती है | कहा गया है कि दस महाविद्याओं की साधना करने के लिए पांच प्रकार की शुद्धि अनिवार्य है पहला है इसस्थान जिस इसस्थान पर देवी की पूजा की जाती है वह स्थान शुद्ध होना चाहिए उस स्थान को गोबर से लीप कर के गंगाजल चिडिकवा करके शुद्ध आशन बिछा करके उस पर देवी का आवाहन करना चाहिए दूसरी दूसरी शुद्धि है सरीर की स्नान आदि करके शुद्ध हो करके देवी का आवाहन करना चाहिए और शरीर अंदर से भी शुद्ध होना चाहिए यानि अंतःकरण से भी प्रवित्र होना चाहिए अंततः करण से मतलब हुआ की मन्न में किसी भी प्रकार की विकार नहीं होना चाहिए उस देवी के प्रति श्रद्धा होना चाहिए क्योंकि शास्त्र में दो ही चीज़ है संसार को चलाने वाली सत्य असत्य सत्य जो है की ऊपर की तरफ ले जाता है और मान सम्मान प्रतिष्ठा बढ़ाता है मोक्ष प्रदान करता है | और असत्य जो है की नीचे की तरफ ले जाता है और अंत में कस्ट ही कस्ट देता है इसीलिए सत्य का आचरण करना चाहिए उससे हे सरीर शुद्धि कहते है तीसरा कहते है द्रव्य साधक जो है की पूजा पाठ के लिए जो सामग्री मगाये उसमे प्रावित्रता होनी चाहिए अर्ताथ उस द्रव्य में कोई जीव जंतु नहीं होना चाहिए साफ़ सुथरा होना चाहिए पूजन की सामग्री इसके बाद हवन के लिए जो साकला है उसमे भी कोई जीव जंतु नहीं होना चाहिए जो सभिधाये है अर्थात लकडिया उसमे भी कोई जीव जंतु नहीं होना चाहिए इस प्रकार पवित्रा द्रव्य होना चाहिए चौथ है देव शुद्धि का अर्थ है जिस देवी का आप आराधन कर रहे है दस महाविद्या में उस देवी की एक फोटो रख लीजिये या उनकी मूर्ति रख लीजिये परंतु मूर्ति या फोटो कंडित नहीं होनी चाहिए अगर कंडित हो गयी तो अशुद्ध हो जात है इसीलिए उसे देव शुद्धि कहा जाता है क्योंकि उसे कंडित होना नहीं चाहिए मूर्ति को शुद्ध होना चाहिए पांचवा है मंत्र शुद्धी अर्थात जिस मंत्रो का आप जप या पाठ कर रहे है उससे शुद्ध शुद्ध उपचारां करना चाहिए उससे मंत्र शुद्धि कहते है | कहा गया है कि मन्न के दवारा आप जो भी उपचारां करेंगे उससे मंत्र कहा जाता है वह शुद्ध होना चाहिए अशुद्ध नहीं होना चाहिए इस प्रकार की पांच शुद्धि होने पर देवी प्रसन्न हो कर अपने भक्त को अबीहिस्ट फल प्रदान करती है ाचा इन् दस महाविद्याओं की तीन कोटि है पहला सौम्य रूप दूसरा उग्र रूप और तीसरा सोम्य और उग्रा दोनों रूप में सौम्य रूप में त्रिपुर सुंदरी, भुनेश्वरी , माँ तंगी और कमला और उग्र कोटि में काली, छिन्मस्तिका, धूमावती, भाग्लमुखी और उग्र और सौम्य कोटि में तारा, त्रिपुर भैरवी इसलिए काली को कहा जाता है काल काल का अर्थ है समय जो समय से भी परे है जो सबसे बड़ी शक्ति शाली है उस कालिका देवी की पूजा बड़ी विधि विधान से करना चाहिए क्यूंकि वह उग्र स्वभाव की है थोड़ा भी त्रुटि होगी तो वह भक्त का ही विनाश कर डालेगी इसलिए उनके साधना में विधि विधान से पूजा पाठ करना चाहिए उनके मंत्रों का जप करना चाहिए जिससे देवी प्रसन्न हो जाये क्यूंकि वह जो है क्यूंकि वह सहदेव दुष्टों को दण्ड देने के लिए तैयार रहती है | तारा भी उग्र स्वभाव की है और दूसरी बात यह है कि वह सौम्य सभव की भी है उग्र स्वभाव का करण यह है कि वह हमेशा हाथ में तलवार लिए रहती है दुष्टों का नाश करनेके लिए सोम्य सभव में वह पूरे संसार का पालन पोषण करती है कहा गया है की जब देवा सुर संग्राम हुआ था उसके पश्चात असुर लोग पाताल लोक को चले गए और देवता लोग स्वर्ग लोक को चले गए फिर बार बार असुर लोग देवताओं पर चढ़ाई करने लगे तो भगवान विष्णु की कृपा से भगवान शिव और ब्रह्मा जी ने योजना बनाई कि समुन्द्र मंथन हो उन्होंने देवताओं से कहा की आपलोग समुन्द्र मंथन करिए उससे अमृत निकलेगा उसे पी कर आप बलवान हो जाएंगे तब असुर आपको परास्त नहीं कर पाएंगे तो जब समुन्द्र मंथन हुआ तो उसमे से चौदह रत्न निकले सर्प्रथम काल कुण्ड विष निकला उस काल कुण्ड विष को भगवान शिव ने पी लिया तो भगवान शिव के तीसरे नेत्र में अग्नि देवता थे और काल कुण्ड विष जो है की बहुत गर्म था भगवान शिव ने उसे पी लिया उसे कण्ठ में धारण कर लिया तो उनका शरीर नीला हो गया इसलिए भगवान शिव को नील कंठ भी कहा जाता है जब नीला हो गया तब भगवान शिव उग्र स्वभाव में हो गए तो यही तारा देवी भगवान् शिव को शिशु बनायीं और भगवान् शिव शिशु बन कर के तारा देवी के स्थान पान किया अर्थात यह दूध पीने लगे तो माता तारा के दूध से भगवान शिव को शीतलता मिली इसलिए उनका जो सारा विष था वह भगवती तारा में चला गया इसलिए तारा देवी का शरीर नीले रंग का हो गया और भगवान शिव को शान्ति प्रदान हुई इसलिए उन्हें जगत माता भी कहा जाता है यह वही देवी है जिनसे सारी शक्ति ग्रहण करके भगवान् शिव अर्धनागेस्वर रूप में पूजे जाते है तोह यह पूरे भक्तो को जो है अभय प्रदान करती है पालन पोषण करती है जिस प्रकार सभी महा विद्या में अपना अपना गुणं अपना अपना गुण अपना अपना शक्ति है इसलिए इनका साधना पूजा पाठ विधि विधान से करना चाहिए जिससे भगवती प्रसन्न हो कर भक्तों को अभय प्रदान करती है इस पूजा को करने से ग्रह बाधा भूत प्रेत पारिवारिक कलेश और संसार में सभी प्रकार की जैसी भी बढाए है उससे भगवती महा विद्या उससे नाश करती है और मनुष्य के मनोकामनाओ को पुनः करती है इसमें कोई भी संशय नहीं है